ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् |
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ||

महामृत्युंजय मंदिर का महात्म्य
महामृत्युंजय मंदिर तथा उसका शिखर जागेश्वर के मंदिर समूहों में सबसे अधिक उँचा है। पुरातत्वेत्ताओं के अनुसार इसका निर्माण बाकी सभी मंदिरो से पुराना है। यह सबसे सुन्दर मंदिर भी है। इसकी बाहरी दीवारों पर पौराणिक मूर्तियां उत्कीर्ण हैं जो बहुत हरी मनोहारी है इतिहासवेत्ता और पुरातत्वविद् इस मन्दिर को जागेश्वर मंदिर समूह में सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं।
इसके दो कारण हैं-
1 यह सबसे प्राचीन और सबसे बड़ा मंदिर है ।
2 इसकी दीवारों तथा खम्भों पर 25 शिलालेख उत्कीर्ण है जो अलग- अलग समय में सातवीं शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी तक के माने गये हैं। इनकी भाषा संस्कृत तथा लिपि ब्राहमी है। इस मंदिर में स्थित शिवलिंग की भव्यता और विशालता को देखकर आदि शंकाराचार्य बहुत प्रभावित हुए उन्हें स्वयं इसके सिद्धस्थल होने के अनुभूति हुई । तत्पश्चात उन्होंने इसी मंदिर में बैठकर इस लिंग का विधिवत कीलन किया। इस मंदिर के बारे में यह भी मान्यता है कि इसके गर्भगृह यहाँ मण्डप में बैठकर यदि विधिवत् महामृत्युयंजय मंत्र का पाठ किया जाए तो अनेकों सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं और अल्पमृत्यु, अकालमृत्यु, मृत्यु निवारण, मारकेश, कालसर्प योग, दरिद्र योग आदि कष्टों व अन्य अनेक रोगों का भी शीघ्र निवारण हो जाता है।
यह स्थान हजारों वर्षों से अनेकों ऋषियों और देवताओं द्वारा किये गये तप और मंत्रपाठ के कारण स्वतः सिद्धपीठ हो गया है । विशेष पूजा शिवरात्री, वैशाखी तथा कार्तिक पूर्णिमा में की जाती है।
श्रावण की पूजा महीने भर तक चलती है। उस समय भक्तगण हजारों लाखों की संख्या में यहाँ आते हैं। सबकी कामनाएं पूर्ण होती हैं संतान की इच्छुक महिलाएं मनौती पूर्ण करने हेतु पर्वो पर हाथों में जलता हुआ दीपक लिए लम्बी-लम्बी कतारों में रात्रि भर खड़ी देखी जा सकती हैं। शिव को पुष्टिदाता माना जाता है और रूद्र के रूप में सहारक भी। मुख्य मंदिर में लिंग स्वयंभू रूप मे विद्यमान हैं। मुख्य शिवलिंग लगभग दस फीट नीचे है। शिवलिंग के उपरी भाग में नेत्र बना हुआ है। जहाँ पर किसी भी पीड़ित या फरियादी व्यक्ति की व्यथा को कहने से उस पीड़ित को दुखः व संताप से मुक्ति मिलती है ।
महामृत्युंजय मंदिर में भोग व्यवस्था भी है। मंदिर कमेटी के माध्यम से ही मंदिर में भोग की व्यवस्था होती है जिसमें एक समय में 3 किग्रा चावल, 1/2 किग्रा दाल, 1/2 किग्रा घी, (सब्जी कोई भी). मसाले आदि से भोग तैयार किया जात है। शंकर भगवान को भोग सिर्फ नाथ गोस्वामी एवं साधुलोग ही ग्रहण कर सकते हैं । पुष्टि माता को चढाया जाने वाला भोग कोई भी ग्रहण कर सकता है। महामृत्युंजय मंदिर में काल सर्पयोग शांति, अन्य सूलयोग, मार्केश करी दशायें, रूपों में किया जाता है महामृत्युंजय जप की पूजा प्रातः 4 बजे ब्रहममूर्त में होती है। यहाँ पर घी का अखण्ड दिया जलता रहता है। मंदिर के दक्षिणभाग में प्रसिद्ध श्मशान घाट है। यहाँ पर काफी दूर-दूर से लोगों को अंतिम संस्कारके लिये लाया जाता है महामृत्युंजय मंदिर से ही 200 मीटर की दूरी पर ब्रहम कुण्ड है । गंधक युक्त इस जल में स्नान करने से समस्त रोग व शोकों से मुक्ति मिलती है। इस स्थान पर जनेउ, पितृ श्राद्ध, तर्पण, मुंडन किया जाता है। मूर्तिशिल्प की दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के कारण जागेश्वर मे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा एक संग्रहालय की स्थापना कर दी गयी है। इस संग्रहालय में 10वीं व 11वीं शताब्दी की मूर्तियाँ हैं। हर शुक्रवार को संग्राहालय में अवकाश रहता है।
जन्मकुण्डली में सूर्यादि ग्रहों के द्वारा किसी प्रकार की अनिष्ट की आशंका हो या मारकेश आदि लगने पर किसी प्रकार की भी भयंकर बीमारी से आकान्त होने पर अपने बन्धुबान्धवों तथा इष्ट मित्रों के बिना कहे देश - विदेश जाने या किसी प्रकार से भी वियोग होने पर स्वदेश, राज्य और बिना कहे देश-विदेश होने की स्थिति में, अकाल मृत्यु की शान्ति एवं अपने उपर किसी तरह का मिथ्या दोषारोपण (अर्थात कलंक आदि) लगने पर, उद्विग्न चित्त एवं धार्मिक कार्यों से मन विचलित होने पर महामृत्युंजय मन्त्र का जप ( स्तोत्रपाठ, भगवान शंकर की अराधना) करें। यदि स्वयं न कर सकें तो किसी ब्राहमण द्वारा कराना चाहिए। इससे सदृबुद्धि मनः शान्ति, रोग मुक्ति एवं सवर्था सुख सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
मंदिर में महामृत्युंजय के अनुष्ठान एवं लघुरूद्र महारूद्र तथा सामान्य रूद्राभिषेक तो प्रायः होते ही रहते हैं, लेकिन विशेष कामनाओं के लिए शिर्वाचन का भी अपना अलग विशेष महत्व होता है। मारूद्र साम्ब सदाशिव महामृत्युंजय को प्रसन्न करने व अपनी सर्वकामना सिद्धि के लिए यहाँ पर पार्थी पूजा का विधान है। जिसमें मिट्टी के शिवार्चन पुत्र प्राप्ति के लिए श्याली चावल के शिवार्चन व अखण्ड दीपदान की तपस्या होती है ।
शत्रुनाश व व्याधि नाश हेतु नमक के शिवार्चन, रोग नाश हेतु गाय के गोबर के शिवार्चन दसविधि लक्ष्मी प्राप्ति प्राप्ति हेतु प्रतिष्ठा कर विधि विधान द्वारा विशेष पुराणोक्त व वेदोक्त विधि से पूज्य विधि से पूज्य होती है। महामृत्युंजय मन्त्र जप करने का विधिपूर्वक विधान, हवन विधान, मुत्युंजय स्तोत्र और कवच दिया गया है। हिन्दी टीका एवं मृत्युंजय स्तोत्र आदि भी इसमें दे देने से इसकी उपयोगिता और भी अत्यधिक बढ गयी है। इसमें लिखी गयी हिन्दी टीका आधार पर थोड़े पढे लिखे व्यक्ति भी मामृत्युंजय स्तोत्र और जप का अनुष्ठान भली-भाँति कर सकते हैं ।
1. राष्ट विनाशोन्मुख की स्थिति में आ गया हो (अर्थात् अपने देश पर किसी शत्रु द्वारा आक्रमण होने पर), देश ग्राम में महामारी (हैजा ) प्लेग बीमारी आने पर उसकी शान्ति के लिए एक करोड़ महामृत्युंजय मन्त्र का जाप करना चाहिए।
2. किसी प्रकार की बीमारी से मुक्ति पाने के लिए तथा अनिष्ट सूचक स्वप्न देखने पर शुभफल की प्राप्ति हेतू सवा लाख जप करावे ।
3. अपमृत्यु (अर्थात् अग्नि में जलकर, पानी में डूबकर सर्प आदि किसी विषधर जन्तु के काटने से मृत्यु होने पर) से मुक्ति पाने के लिए दस हजार मन्त्र का जप करावे ।
4. अपने विषय में स्वजनों और इष्ट मित्रों के सम्बन्ध में किसी प्रकार का भी अनिष्ट सूचक समाचार मिलने पर तथा सफल यात्रा के लिए एक हजार महामृत्युंजय मन्त्र का जाप करना चाहिए ।
5. अपनी अभीष्ट सिद्धि, पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति, राज्य प्राप्ति, मनोनुकूल सम्मान प्राप्ति एवं प्रचुर धन-धान्य प्राप्त करने के लिए सवा लाख महामृत्युंजय मन्त्र का पुनश्चरण करें या ब्राहम्ण द्वारा करावें ।
1. वैसे तो सामान्य हवन विधान में यव, तिल, चावल, धी, चीनी और पंचमेवा ही प्रधान है, परन्तु किसी विशेष कामना के लिए जप किया गया हो, तो निम्नलिखित द्रव्यों का हवन करें।
2. यदि सवा लाख महामृत्युंजय मन्त्र का जप किया गया हो तो उसमें दूध, दही, दूर्वा बिल्वफल, तिल, खीर, पीली सरसों, बड़ पलास तथा खैर की समिधा ( लकड़ी) को कमशः शहद में डुबोकर हवन करें।
3. किसी भी बीमारी से साध्य मुक्ति पाने के लिए, शत्रु पर विजय, दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादी की प्राप्ति एवं प्रचुर धन धान्य की उपलब्धि के लिए सुधाबल्ली (गुरूच) की चार-चार अंगुल की समिधा से हवन करें ।
4. मनचाही लक्ष्मी प्राप्ति के लिए बिल्वफल का हवन करना चाहिए।
5. ब्रहमत्व सिद्धि में पलास की समिधा से हवन करें ।
6. प्रचुर धन प्राप्ति के लिए वट की, सौन्दर्य प्राप्ति के निमित्त खैर की समिधा से हवन करें ।
7. अधर्मादि पाप विनाश में तिल से शत्रु नाश में सरसों से, यशः प्राप्तिपूर्वक श्री प्राप्ति के लिए खीर से कृत्या (जादू-टोना, पिशाच आदि) मृत्यु के विनाश के लिए दही से हवन करना चाहिए । .
8. रोग क्षय करने के लिए तीन-तीन दूर्वाओं से प्रबल ज्वर से विमुक्ति पाने के लिए अपामार्ग (चिचिड़ा) की लकड़ी में पकायी हुई खीर से हवन करें ।
9. किसी व्यक्ति को अपने वश में करना हो, तो गाया के दूध और घी मिश्रित दूर्वाकुरों से होम करें ।
10. किसी प्रकार की बीमारी से मुक्ति पाने के लिए काश्मीरी फूल (पुष्कर मूल) की तीन-तीन समिधायें तथा दूध और अन्न की आहुति करनी चाहिए।
हवन करते समय प्रत्येक आहुति मे 'स्वाह' शब्द का उच्चारण तो करें ही, हवन करने के पश्चातृ एक पात्र में दूध मिश्रित जल लेकर 'महामृत्युंजय तर्पयामि' अथवा 'अमुक तर्पयामि' कहकर तर्पण करें। जप यदि स्वयं किया गयाहो तो दूर्वाकुरों से जल लेकर अपने शरीर पर या यजमान के लिए किया गया हो, तो दूर्वा कुरों से जल लेकर अपने शरीर पर या यजमान के लिए किया गया हो, तो यजमान के शरीर दशांश संख्या के अनुसार भी करना चाहिए।
इस स्थान का इतिहास कितना पुराना है इसके ऐतिहासिक आलेख प्रारम्भ से तो प्राप्त नहीं हैं। लेकिन कुछ प्रचलित कथन के अनुसार दक्ष प्रजापति के यज्ञ का विध्वंस करने के बाद सती के आत्मदाह से दु:खी, यज्ञ की भस्म को सारे शरीर पर मलकर शिव ने झाकरसैन (दारुक वन) के घने जंगलों में हजारों साल तप किया। इन्हीं जंगलों में वशिष्ठ आदि सप्त ऋषि अपनी पत्नियों के साथ कुटिया बनाकर तप कर रहे थे।सती की मृत्यु से उद्धेलित नील लोहित शिव कभी दिगम्बर अवस्था (नग्नवस्था) में नाचने लगते थे। कभी मस्त होकर झूमने लगते थे। एक दिन ऋषि पत्नियाँ यज्ञ के लिए समिधाएं (हवन की लकड़िया) और कन्दमूल आदि इकट् ठा करने जंगल में गई हुई थीं। ऋषि पत्नियों ने उस सुन्दर और सुगठित पुरुष को इस तरह भटकते हुए देखा तो उसे देख अपनी सुध-बुध खोने लगीं।
अरुन्धती ने सबको सचेत करने की कोशिश की लेकिन इस अवस्था में किसी को अपने ऊपर काबू नहीं रह गया था, शिव अपनी ही धुन में थे, न उन्होंने उनकी ओर ध्यान दिया न उनके किसी प्रश्न का उत्तर दिया। ऋषि पत्नियों द्वारा शिव को आकर्षित करने के सभी प्रयास विफल हो गये और वे सभी कामातुर होकर मुर्छित हो गई। जब वे रात भर अपनी कुटियों में नहीं लौटीं तो प्रात: काल ऋषि उन्हें ढूंढने निकले। जब उन्होंने यह देखा कि शिव तो समाधि में लीं हैं और उनकी पत्नियाँ अस्त-व्यस्त अवस्था में उनके चारों ओर मूर्छित पड़ीं हैं, उन्होंने बिना कुछ सोच विचार किये क्रोधावेश में बिना कुछ पूछे यह निष्कर्ष निकाल लिया कि "तुमने हमारी पत्नियों के साथ व्यभिचार किया है अत: तुम्हारा लिंग तुरन्त तुम्हारे शरीर से अलग होकर पृथ्वी पर गिर जाये"। शिव ने अपने नेत्र खोले और उत्तर दिया "तुम लोगों ने मेरा दोष न होते होते हुए भी मुझे शाप दिया, पर तुम लोगों ने इस संदेहजनक परिस्थिति में मुझे देखकर अज्ञान में ऐसा किया हैं इसलिए मैं इस शाप का विरोध नहीं करूँगा और मेरा लिंग स्वत: गिर कर इस स्थान पर स्थापित हो जायेगा। तुम सातो ऋषि भी आकाश में तारों के साथ अन्नत काल तक लटकते रहोगे"।
ऋषियों के शाप से लिंग पृथ्वी पर गिर पड़ा और जलता हुआ वहाँ घूमने लगा उसकी चपेट में आकर सारा स्थान, जंगल आदि जलने लगे। ऋषियों को जब कोई उपाय न सूझा तो घबराकर ब्रह्मलोक की और भागे और ब्रह्मा जी से प्रार्थना की कि "अपनी सृष्टि को बचाने का प्रयास कीजिए शिवजी के लिंग से तीनों लोक भस्म होने जा रहे हैं। "ब्रह्मा जी बोले - " तुम लोग यह भूल गये कि शिव रुद्र भी हैं। वास्तव में शिव दोषी नहीं हैं। तुम्हें तो उस निर्दोष अतिथि का स्वागत करना चाहिए था। तुम सब गृहस्थ हो, गृहस्थ का धर्म अतिथि सेवा होता है न कि बिना जाने-बूझे शाप देना। इससे बचने का एक ही उपाय है कि ल्तुम रुद्र की उपासना करो वे ही कोई रास्ता निकालेंगे। "ऋषियों ने रुद्र की उपासना की। आशुतोष शिव शीघ्र प्रसन्न होने वाले देवता होने के कारण शीघ्र पसीज गए। उन्होंने प्रकट होकर देवताओं से कहा कि "केवल पार्वती ही इस तेज को संभालने में समर्थ हैं"।
ऋषियों ने पार्वती की उपासना की। उन्होंने प्रकट होकर ऋषियों की प्रार्थना सुनी तथा संसार के प्राणियों की रक्षा के लिए उनकी प्रार्थना स्वीकार की, फिर योनि के रूप में शिवलिंग को धारण किया। देवताओं और गन्धर्वो की पूजा अर्चना के बाद शान्त हो गया। इसी के बाद शिवलिंग की पूजा आरम्भ हुई। यही लिंग स्वयंभू लिंग के रूप में जाना जाता है।
इसके अतिरिक्त प्राचीन काल में देव, दानव, यक्ष, नाग, किन्नर आदि अनेक जातियाँ निवास करती थीं। इनमें से नाग जाति के अधिपति शिवजी माने जाते हैं। उनका प्रदेश भी हिमालय का यह भाग ही माना जाता है। देवों का अधिपति इन्द्र को तथा यक्षों का अधिपति कुबेर को माना जाता है। स्वयंभू लिंग होने के कारण इस लिंग की ठीक-ठीक प्राचीनता सिद्ध नहीं की जा सकती।